गुरुवार, 25 अगस्त 2016

चौंसठ विद्याओं और सोलह कलाओं के ज्ञाता कहे जाने वाले कला मर्मज्ञ चंद्रवंशी श्रीकृष्ण

चौंसठ विद्याओं और सोलह कलाओं के ज्ञाता कहे जाने वाले कला मर्मज्ञ चंद्रवंशी श्रीकृष्ण

भगवान श्रीकृष्ण का प्रत्येक रूप मनोहारी है। उनका बालस्वरूप तो इतना मनमोहक है कि वह बचपन का एक आदर्श बन गया है। इसीलिए जन्माष्टमी पर श्रीकृष्ण के इसी रूप की पूजा-अर्चना की जाती है, जिसमें वे चुराकर माखन खाते हैं, गोपियों की मटकी तोड़ते हैं और खेल-खेल में असुरों का सफाया भी कर देते हैं। इसी प्रकार उनकी रासलीला, गोपियों के प्रति प्रेम वाला स्वरूप भी मनमोहक है। इसी प्रकार उनका योगेश्वर रूप और महाभारत में अर्जुन के पथ-प्रदर्शक वाला रूप सभी को लुभाता और प्रेरणा देता है। अपनी लीलाओं में वे माखनचोर हैं, अर्जुन के भ्रांति-विदारक हैं, गरीब सुदामा के परम मित्र हैं, द्रौपदी के रक्षक हैं, राधाजी के प्राणप्रिय हैं, इंद्र का मान भंग करने वाले गोवर्धनधारी हैं। उनके सभी रूप और उनके सभी कार्य उनकी लीलाएं हैं। उनकी लीलाएं इतनी बहुआयामी हैं कि उन्हें सनातन ग्रंथों में लीलापुरुषोत्तम कहा गया है।
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चौंसठ विद्याओं और सोलह कलाओं के ज्ञाता कहे जाने वाले कला मर्मज्ञ चंद्रवंशी श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अ‌र्द्धरात्रि के समय रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। धर्मग्रंथों में इसे जन्म के बजाय प्रकट होना बताया गया है। उनके अनुसार, इसी तिथि को कारागारगृह में भगवान विष्णु देवकी और वसुदेव के समक्ष चतुर्भुज रूप में शंख, चक्र, गदा और कमल लिए प्रकट हुए थे, किन्तु माता देवकी के अनुरोध पर उन्होंने शिशु रूप धारण कर लिया। यही कारण है कि कुछ लोग जन्माष्टमी को गोपाल कृष्ण का जन्मोत्सव कहते हैं, तो कुछ उनका प्राकट्योत्सव।

श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध के 51वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अपना परिचय इस प्रकार देते हैं: ब्रह्मा जी ने मुझसे धर्म की रक्षा और असुरों का संहार करने के लिए प्रार्थना की थी। उन्हीं की प्रार्थना से मैंने यदुवंश में वसुदेव जी के यहां अवतार ग्रहण किया है। अब मैं वसुदेव जी का पुत्र हूं, इसलिए लोग मुझे वासुदेव कहते हैं।’ महाभारत के अश्वमेध पर्व में भगवान श्रीकृष्ण अवतार लेने का कारण बताते हैं, ‘मैं धर्म की रक्षा और उसकी स्थापना के लिए बहुत सी योनियों में जन्म (अवतार) धारण करता हूं।’

जन्माष्टमी पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है झांकियां सजती हैं, मटकी फोड़ प्रतिस्पर्धाएं होती हैं। ‘गोविंदा आला रे’ गूंजता है। लीला पुरुषोत्तम का प्रत्येक प्रसंग प्रेरणा प्रदान करता है। जब मन अशांत हो, तब भगवान श्रीकृष्ण की वाणी ‘गीता’ घोर निराशा के बीच आशा की किरण दिखाने लगती है। तभी तो श्रीकृष्ण को ‘आनंदघन’ अर्थात आनंद का घनीभूत रूप कहा जाता है। नंदघर आनंद भयो, जय कन्हैयालाल की..। उन्होंने सिर्फ नंद के घर को आनंद से नहीं भरा, अपितु सभी के आनंद का मार्ग प्रशस्त किया।
जन्माष्टमी पर श्री कृष्ण हुए 5241 वर्ष के, बना ग्रहों का अद्भुत योग



जन-जन के आराध्य भगवान श्रीकृष्ण इस वर्ष जन्ममाष्टमी पर 5240 साल के होने जा रहे हैं।

पुराणों में वर्णित युग की आयु और धरती पर भगवान श्रीकृष्ण की मौजूदगी के साक्ष्यों के अनुसार ये गणना पंचागों से की गई है। इस बार विलक्षण संयोग के बीच भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाएगा।

भगवान श्री कृष्ण जब जन्म लिया- बताया जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर के अंत में जन्म लिया। ज्योतिषाचार्य पंडित कामेश्वर नाथ चतुर्वेदी के अनुसार पंचांगों के अनुसार कलियुग के गुजरे अनुमानित 5114 वर्ष और द्वापर के अंत में भगवान श्रीकृष्ण की धरती पर मौजूदगी 125 वर्ष आंकी जाती है। ऐसे में इस बार भगवान श्रीकृष्ण 5239 वर्ष पूर्ण कर 5240 वें वर्ष में प्रवेश करेंगे।

जन्माष्टमी पर अद्भुत ग्रह योग- इस बार द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय जिस तरह की नौ ग्रहों की स्थिति थी वैसे ही इस वर्ष छह ग्रहों का संयोग बन रहा है। इसमें वर्षा ऋतु भाद्रपद कृष्ण पक्ष, वृष राशि का चंद्रमा, सिंह राशि का सूर्य, सिंह राशि का बुध, कर्क राशि में गुरु, राहु कन्या राशि के साथ केतु मीन राशि में मौजूद रहेगा। इसके अलावा मध्य रात्रि वृषभ लग्न भी रहेगा। जो द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण के जन्म समय भी थी।
इस कृष्ण जन्माष्टमी पर बन रहा है ‘दुर्लभ योग’



दशकों बाद रोहिणी नक्षत्र में मनाई जा रही है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
इस जन्माष्टमी पर 50 साल बाद 24 घंटे रहेगा रोहिणी नक्षत्र। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर इस बार (5 सितंबर,2015 को ) 24 घंटे रोहिणी नक्षत्र रहेगा। 50 साल बाद यह स्थिति बनी है। इस दिन अमृत तथा सर्वार्थसिद्धि योग का विशेष संयोग भी बन रहा है। पण्डितों के अनुसार धार्मिक कार्य व खरीदारी के लिए यह दिन श्रेष्ठ रहेगा।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र व पंचागीय गणना के अनुसार इस बार। श्री कृष्ण जन्माष्टमी शनिवार के दिन, वृषभ राशि के चंद्रमा की साक्षी में हर्षल योग, बालव करण तथा रोहिणी नक्षत्र में आ रही है। इस दिन रोहिणी नक्षत्र का प्रभाव करीब 90 फीसद रहेगा।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर रोहिणी नक्षत्र का होना विशेष शुभ माना जाता है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म इसी नक्षत्र में हुआ है। इस नक्षत्र में योगेश्वर श्रीकृष्ण का पूजन सुख-शांति तथा समृद्धि देने वाला माना गया है। साधना तथा नवीन वस्तुओं की खरीदी के मान से भी यह दिन सर्वोत्तम है।

3 योग… जो कई वर्षों बाद बने हैं



इस वर्ष शिक्षक दिवस 5 सितंबर, शनिवार भाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी को महाजन्माष्टमी पूरे देश में मनाई जाएगी। ऐसे 3 योग हैं, जो कई वर्षों बाद बने हैं। ज्योतिर्विद एवं कर्मकांडी पं. सोमेश्वर जोशी के अनुसार 26 वर्षों बाद जन्माष्टमी बृहस्पति, सूर्य सिंह संक्रांति में आई है। 20 वर्षों बाद स्मार्त एवं वैष्णवों दोनों संप्रदाय की जन्माष्टमी साथ में आई है तथा 2 वर्षों बाद अष्टमी, रोहिणी नक्षत्र पूरे दिन आया है तथा अगले महायोग 8 वर्षों बाद 6 सितंबर 2023 में आएंगे।

जन्माष्टमी के लिए धर्मसिंधु के अनुसार जो आवश्यक योग माने गए हैं उनमें प्रमुख रूप से अष्टमी तिथि है, जो रात्रि 3.10 मिनट तक रहेगी, रोहिणी नक्षत्र रात्रि 12.10 मिनट तक रहेगा। यह जन्माष्टमी इसलिए भी महत्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि कृष्ण का जन्म भी रात्रि 12 बजे, अष्टमी तिथि एवं रोहिणी नक्षत्र, उच्च वृषभ राशि में चन्द्र, सिंह का सूर्य, कन्या का बुध, अमृत सिद्धि तथा सर्वार्थ सिद्धि योग में हुआ था, जो कि इस बार भी रहेगा। इन्हीं योगों के कारण बृहस्पति उदय तथा शुक्र मार्गी होने जा रहे हैं।

पं. सोमेश्वर जोशी ने जानकारी देते हुए बताया कि जन्माष्टमी को तंत्र की 4 महारात्रियों में से 1 माना गया है जिसमें रात्रि में अष्टमी तथा रोहिणी नक्षत्र का आना अति शुभ माना जाता है। इस बार यह महारात्रि भी इन्हीं योगों में होने के कारण अति शुभ एवं सिद्धिदायक होगी। ये ऐसे योग हैं जिसमें जन्म लेने के कारण सभी राक्षसों एवं कामदेव का रासलीला में अहंकार तोड़ा और जन्म भी दिया। विशेष रूप से इस रात्रि को शनि, राहु, केतु, भूत, प्रेत, वशीकरण, सम्मोहन, भक्ति और प्रेम के प्रयोग एवं उपाय करने से विशेष फल की प्राप्ति होगी।

ये विशेष उपाय करें : –
* ससंकल्प उपवास करें तथा रात्रि में भी भोजन न लें।

* काले तिल व सर्व औषधियुक्त जल से स्नान करें।

* संतान प्राप्ति तथा पारिवारिक आनंद बढ़ाने के लिए कृष्ण पूजन, अभिषेक कर जन्मोत्सव मनाएं।

* धनिए की पंजीरी का भोग लगाकर प्रसाद वितरण करें।

* इष्ट मूर्ति, मंत्र, यंत्र की विशेष पूजा व साधना करें।

* श्री राधाकृष्ण बीज-मंत्र का जप करें।

* भक्ति एवं संतान प्राप्ति के लिए गोपाल, कृष्ण, राधा या विष्णु सहस्रनाम का पाठ व तुलसी अर्चन करें।

* भूत-प्रेत बाधा निवारण, रक्षा प्राप्ति हेतु सुदर्शन प्रयोग, रामरक्षा, देवी कवच का पाठ करें।

* आकर्षण, सम्मोहन, वशीकरण प्रेम प्राप्ति के लिए तांत्रिक प्रयोग।

* ग्रह पीड़ा अनुसार पूजा व जप करें।

शास्त्रकारों ने व्रत पूजन, जपादि हेतु अद्र्धरात्रि में रहने वाली तिथि को ही मान्यता दी है। विशेषकर स्मार्त लोग अद्र्धरात्रिव्यापिनी अष्टमी को यह व्रत करते हैं। पंजाब, हरियाणा,हिमाचल, चंडीगढ़ आदि में स्मार्त धर्मावलम्बी अर्थात गृहस्थ लोग गत हजारों सालों से इसी परंपरा का अनुसरण करते हुए सप्तमी युक्ता अद्र्धरात्रिकालीन वाली अष्टमी को व्रत, पूजा आदि करते आ रहे हैं जबकि मथुरा, वृंदावन सहित उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशों में उदयकालीन अष्टमी के दिन ही कृष्ण जन्मोत्सव मनाते आ रहे हैं। भगवान कृष्ण की जन्मस्थली मथुरा की परंपरा को आधार मानकर मनाई जाने वाली जन्माष्टमी के दिन ही केन्द्रीय सरकार अवकाश की घोषणा करती है।

वैष्णव संप्रदाय के अधिकांश लोग उदयकालिक नवमी युता जन्माष्टमी व्रत हेतु ग्रहण करते हैं। सुबह स्नान के बाद ,व्रतानुष्ठान करके ओम नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र जाप करें । पूरा दिन व्रत रखें । फलाहार कर सकते हैं। रात्रि के समय ठीक बारह बजे, लगभग अभिजित मुहूर्त में भगवान की आरती करें। प्रतीक स्वरूप खीरा फोड़ कर , शंख ध्वनि से जन्मोत्सव मनाएं। चंद्रमा को अर्ध्य देकर नमस्कार करें। तत्पश्चात मक्खन, मिश्री, धनिया, केले, मिष्ठान आदि का प्रसाद ग्रहण करें और बांटें। अगले दिन नवमी पर नन्दोत्सव मनाएं।

भगवान कृष्ण की आराधना के लिए आप यह मंत्र पढ़ सकते हैं-

ज्योत्स्नापते नमस्तुभ्यं नमस्ते ज्योतिषां पते!

नमस्ते रोहिणी कान्त अघ्र्य में प्रतिगृह्यताम्!!

संतान प्राप्ति के लिए – दुर्लभ संयोग का विशेष फल, जन्माष्टमी पर पैदा होने वाले बच्चे होंगे कुछ खास

इस की इच्छा रखने वाले दंपति, संतान गोपाल मंत्र का जाप पति -पत्नी दोनों मिल कर करें, अवश्य लाभ होगा।

देवकी सुत गोविंद वासुदेव जगत्पते!

देहिमे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गत:!!

विवाह विलम्ब के लिए मंत्र है-

ओम् क्लीं कृष्णाय गोविंदाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।

इन मंत्रों की एक माला अर्थात 108 मंत्र कर सकते हैं।
5114 वर्ष पहले हुआ था कृष्ण जन्म


5114 वर्ष पहले यह योग भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी में रात 12 बजकर 12 मिनट पर हुआ था। इस समय चंद्रमा अपनी उच्च वृष राशि में स्थित था, और रोहिणी नक्षत्र था।
वृष लग्न के साथ सूर्य स्वयं की सिंह राशि पर स्थित रहा। बुधवार के दिन श्रीकृष्ण जन्म के समय काल सर्पयोग था।
दुर्लभ ग्रह संयोजन के बीच पैदा होने की वजह से श्रीकृष्ण 64 गुणों से संपन्न व 16 कलाओं से पूर्ण थे।

ग्रंथों में श्रीकृष्ण जयंती का नाम



जन्मतिथि अष्टमी-नवमी युक्त (सुबह 4.10 बजे से नवमी) होना (सिंधु ग्रंथराज) रोहणी पति चंद्रोदय रात 11.58 बजे, जन्म समय के पूर्व होना। (सिंधु श्री विश्व विजय पंचांग) भद्रा का नहीं होना, सर्वार्थ सिद्धि योग होना। इस प्रकार के संयोग को जन्माष्टमी के बजाय श्रीकृष्ण जयंती का नाम ग्रंथों में दिया गया है। (सिंधु व्रतराज) वार, तिथि व नक्षत्र द्वापर युग कइस साल जन्माष्टमी द्वापर के संयोगों के साथ आ रही है।

वार, समय, तिथि एवं नक्षत्र चारों ही द्वापर की तरह बन रहे हैं। द्वापर में श्रीकृष्ण का जन्म रोहिणी नक्षत्र में भाद्रपद कृष्णपक्ष अष्टमी तिथि, बुधवार को आधी रात को हुआ था। इस बार भी 17 अगस्त भाद्रपद कृष्णपक्ष अष्टमी को बुधवार व रोहणी नक्षत्र है।

ग्रहों ने बनाया हर कला में माहिर ‘कृष्ण‘ को



ईश्वर में ब्रह्मा, विष्णु, महेश का ही नाम आता है व इन्हीं त्रिदेवों ने संसार को रचा। ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तो भगवान विष्णु बने पालनहार तो भगवान शिव ने संहार किया। वैसे शिवजी को आदि और अंत कहा जाता है तो भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण को 16 कलाओं का ज्ञाता।

अवतार की श्रेणी में देखा जाए तो सिर्फ भगवान विष्णुजी ने ही अवतार लिए। वे त्रेतायुग में राम के अवतार में अवतरित हुए तो द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण के। जहाँ राम 12 कलाओं के ज्ञाता थे तो भगवान श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के ज्ञाता रहे।

कृष्ण की कुंडली… कृष्ण का जन्म भाद्र मास कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में महानिशीथ काल में वृषभ लगनमें हुआ था। उस समय बृषभ लग्न की कुंडली में लगन में चन्द्र और केतु, चतुर्थ भाव में सूर्य, पंचम भाव में बुध एवं छठेभाव में शुक्र और शनि बैठे थे। जबकि सप्तम भाव में राहू, भाग्य स्थान में मंगल तथा ग्यारहवें यानी लाभ स्थान में गुरु थे।कुंडली में राहु को छोड़ दें तो सभी ग्रह अपनी उच्च अवस्था में थे. कुंडली देखने से ही लगता है कि यह किसी महामानव कीकुंडली है।


भगवान श्री कृष्ण की शक्तियों का राज उनके जन्म समय में छुपा है।
जब श्री कृष्ण ने जन्म लिया तब सभी ग्रह-नक्षत्र अपनी शुभ स्थिति में आकर विराजमान हो गए।
श्री कृष्ण की कुण्डली बताती है कि कृष्ण का जन्म भाद्र मास कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में महानिशीथ काल में वृषभ लगन में हुआ था।
उस समय बृषभ लग्न की कुंडली में लग्न में चन्द्र और केतु, चतुर्थ भाव में सूर्य, पंचम भाव में बुध एवं छठे भाव में शुक्र और शनि बैठे हैं।
जबकि सप्तम भाव में राहू, भाग्य स्थान में मंगल तथा ग्यारहवें यानी लाभ स्थान में गुरु बैठे हैं।
कुंडली में राहु को छोड़ दें तो सभी ग्रह अपनी उच्च अवस्था में हैं।
कुंडली देखने से ही लगता है कि यह किसी महामानव की कुंडली है।
ग्रहों की इन शुभ स्थितियों के कारण ही श्री कृष्ण ने अपनी अद्भुत शक्तियों का प्रदर्शन किया।

राम आदर्शवादी थे तो श्रीकृष्ण ने छल, बल, कपट का सहारा लिया लेकिन उन्होंने जग की भलाई के लिए ही कार्य किया क्योंकि आज का युग कलियुग भगवान श्रीकृष्ण के गुणों वाला ही है।

श्रावण के बाद भाद्रपद मास में श्रीकृष्ण का जन्म कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि में रोहिणी नक्षत्र में नंदगाँव मथुरा की जेल में पिता वसुदेव, माता देवकी के यहाँ हुआ।

कहते हैं भगवान ने माता कैकई को वचन दिया था कि माँ मैं तेरी कोख से द्वापर युग में जन्म लूँगा तो आपने अपना वचन निभाया। आपका जन्म वृषभ लग्न में हुआ। लग्न में तृतीयेश पराक्रम व भाई सखा आपका स्वामी चंद्रमा उच्च का होकर लग्न में होने से आपका व्यक्तित्व शानदार उत्तम कद-काठी के, हर कला में माहिर हुए। मंगल की नीच दृष्टि से आपके सगे भाई बलरामजी ने दूसरी माता रोहिणी की कोख से जन्म लिया। आज के युग में उसे परखनली या टेस्ट ट्‍यूब के रूप में जन्माते हैं।

आपकी पत्रिका में द्वितीय वाणी, धन-कुटुंब भाव का स्वामी बुध उच्च का होकर पंचम भाव विद्या-संतान-मनोरंजन में होने से आपकी वाणी में विशेष प्रभाव होता है तभी आपकी वाणी के सशक्त प्रभाव से सभी प्रभावित थे।

लेकिन आपको एक संतान प्रद्युम्न हुई जो पराक्रमी न होकर कायर थी। जनता के बीच प्रसिद्ध होना चतुर्थेश सूर्य का चतुर्थ भाव में होना रहा। सूर्य ने आपको महाप्रतापी राजा बनाया। लग्नेश शुक्र षष्ठ भाव में स्वराशि का होकर भाग्येश, कर्मेश शनि के साथ केतु भी होने से आप शत्रुओं के काल रहे।

आपने बचपन से लेकर युवावस्था तक अनेक शत्रुओं को परास्त किया जिसमें आपके मामा कंस प्रमुख रहे। वैसे कालिया नाग, पूतना को भी मारा वहीं मल्लयुद्ध में अनेक पहलवानों को पछाड़ने के बाद हाथी को भी मारा। आप पराक्रमी न होकर चतुर थे अत: चतुराई से जहाँ जैसी जरूरत पड़ी वैसा काम किया। कभी युद्ध से भागे भी तभी तो रणछोड़ कहलाए।

शनि, शुक्र, केतु साथ होने से आप प्रेमी भी थे तभी आपने अपनी रणनीति के अनुसार रुक्मणि द्वारा भगाए गए। ताकि संसार ये न कहे कि श्रीकृष्ण ने रुक्मणि का हरण किया। वैसे आपकी तीन पत्नियाँ रुक्मणि, सत्यभामा व जामवंती थीं।

प्रेमिकाओं में राधा का प्रेम जगजाहिर है तभी तो राधेकृष्ण यानी राधा पहले बाद में कृष्ण आते हैं। आप सखाओं के सखा,प्रेमियों में प्रेमी हैं। महाभाग्यवान मंगल का उच्च होना व शनि का उच्च होना परमोच्च कहलाया।

एकादश भाव में गुरु स्वराशि का होने से अपनी सेना व अर्थ धर्मक्षेत्र में लगाया। गुरु की उच्च दृष्‍टि पराक्रम पर होने से भाई महाबली बलरामजी का साथ रहा। सप्तम भाव पर मित्र ‍दृष्टि व मंगल सप्तमेश का उच्च होने से अनेक स्त्रियों से संबंध स्वच्छ रूप से रहे।

आपने संसार को कर्मयोग सिखाया। द्वादश भाव में राहु होने से बाहरी दुश्मन बहुत रहे। लेकिन शनि के उच्च होकर षष्ठ भाव में केतु शुक्र के साथ होने से सभी को नष्‍ट किया। आपकी आयु भी 100 वर्ष पूर्ण करने के बाद एक बहेलिए के तीर से आपकी मृत्यु हुई। ऐसे महान कर्मयोद्धा भगवान श्रीकृष्ण को शत्-शत् नमन।
16 कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण



श्रृंगार कला – भगवान श्रीकृष्ण को श्रृंगार की बारिकियों का इतना ज्यादा ज्ञान था कि उसके श्रृंगार रूप को देखकर गोकुल की कन्याएं (गोपिया) उनके मनमोहक रूप को निहारती रहती थी। उनके गले में दुपट्टा, कमर पर तगड़ी, पीताम्बर अंग वस्त्र, सिर पर छोटा मुकुट तथा उसपर मोर पंख श्री की सुन्दरता में चार चांद लगाता था

वादन कला – भगवान को वादन के सभी स्वरों का पूर्ण ज्ञान था, जिसके परिणास्वरूप वे अपनी बांसूरी से बड़े बड़ों को अपने अनुचर बना लेते थे।

नृत्य कला – श्रीकृष्ण को नृत्य का पूर्ण ज्ञान था, इसी लिए गोकुल की देवियां उनके नृत्य की प्रशंसा करते-करते श्रीकृष्ण का नृत्य देखने की हठ करती थी।

गायन कला – श्रीकृष्ण एक अच्छे गायक भी थे। वेद के मंत्रों का गायन कर उन्होंने अर्जुन को मोहपाश के मुक्त कर दिया था।

वाकमाधूर्य कला – श्रीकृष्ण की वाणी में विलक्षण मधुरता व्याप्त थी। वे जिस किसी से भी वार्ता करते थे, वह हमेशा के लिए उनका हो जाता था।

वाकचातुर्य कला – उनकी वाणी में चतुरता भी थी। वे बडे़ सहज भाव से अपनी बात को मनवा लेते थे और सामने वाले को अपना विरोद्घि भी नही बनने देते थे। महाभारत में ऐसे अनेक प्रकरण सामने आए हैं।

वक्तृत्व कला – भगवान एक महान वक्ता थे। बड़े-बड़े धूरंधरों को उन्होंने अपने प्रभावशाली वक्तव्यों से धराशाही कर उनको उनके ही बनाए जाल में फांस लिया था। कालयवन उसका एक अच्छा उदाहरण है।

लेखन कला – श्रीकृष्ण ने मात्र एक घंटे के सुक्ष्मकाल में गीता की रचना कर एक ऐतिहासिक कार्य किया है। उनका मुकाबला आज तक या इससे पहले कोई नही कर सका। अतः भगवान एक उत्तम कोटी के लेखक भी थे।

वास्तुकला – भगवान श्रीकृष्ण को वास्तुकला का भी अकाटय ज्ञान था। पांडवों के लिए इन्द्रप्रस्थ और स्वयं अपने लिए राजधानी द्वारका का निर्माण वास्तुकला के बेजोड़ नमूने थे।

पाककला – भगवान श्रीकृष्ण पाक शास्त्र के भी महान पंडित थे। सम्राट युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ के दौरान खाने-पीने का पूरा सामान उनकी देख-रेख में ही तैयार किया गया था।

नेतृत्व कला – कृष्ण में नेतृत्व करने की क्षमता बेजोड थी। वे जहां भी गए नेतृत्व उनके पीछे-पीछे हो जाता था। सभी युद्घों से लेकर आम सभाओं में हमेशा सभी ने उन्हीं के नेतृत्व को स्वीकार किया था।

युद्घ कला – श्रीकृष्ण की अधिकतर आयु युद्घों में ही व्यतीत हुई थी परन्तु हमेशा उन्होंने सभी में विजय प्राप्त की। वे युद्घ की सभी विधाओं का सम्पूर्ण ज्ञान रखते थे।

शस्त्रास्‍त्र कला – योगेश्वर श्रीकृष्ण को युद्घ में प्रयोग होने वाले सभी व्यूहों की रचना, उन्हें भंग करने की कला तथा आग्नेयास्त्र, वरूणास्त्र तथा ब्रह्मास्त्र सहित सभी अस्त्र शस्त्रों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त था।

अध्यापन कला – भगवान श्रीकृष्ण एक सफल अध्यापक भी थे। युद्घ क्षेत्र में जिस प्रकार उन्होंने अर्जुन को निष्कामकर्म योग, सांख्य योग, विभूति योग, भक्ति योग, मोक्ष सन्यास योग तथा विश्वरूप दर्शन योग का पाठ पढाया, वह हमेशा अनुक्रणीय रहेगा।

वैद्यक कला – श्रीकृष्ण आयूर्वेद के भी सम्पूर्ण ज्ञाता थे। कंस की फूल चुनने वाली दासी कुबड़ी के शरीर को सीधा करना तथा महाभारत युद्घ में अश्वथामा के प्रहार से मृतप्रायः हुए परीक्षित को जीवन दान देना इसके अकाट्य उदाहरण है।

पूर्वबोध कला – भगवान ने तप से अपनी आत्मा को इतना पवित्र और उर्द्घव गति को प्राप्त करवा लिया था कि उन्हें किसी भी घटना का पहले से ही अनुमान हो जाता था।
64 विद्याओं में माहिर थे श्रीकृष्ण? जानेंगे तो चौंक पड़ेंगे



भगवान श्रीकृष्ण ‘लीलाधर’ पुकारे जाते हैं. श्रीकृष्ण ने हर लीला के जरिए अधर्म को सहन करने की आदत से सभी के दबे व सोए आत्मविश्वास और पराक्रम को जगाया. भगवान होकर भी श्रीकृष्ण का सांसारिक जीव के रूप में लीलाएं करने के पीछे मकसद उन आदर्शों को स्थापित करना ही था, जिनको साधारण इंसान देख, समझ व अपनाकर खुद की शक्तियों को पहचाने और ज़िंदगी को सही दिशा व सोच के साथ सफल बनाए.

इसी कड़ी में श्रीकृष्ण का सांसारिक धर्म का पालन कर, गुरुकुल जाना, वहां अद्भुत 16 कलाओं व 64 विद्याओं को सीखने के पीछे भी असल में, गुरुसेवा व ज्ञान की अहमियत दुनिया के सामने उजागर करने की ही एक लीला थी. यह इस बात से भी जाहिर होता है कि साक्षात जगतपालक के अवतार होने से श्रीकृष्ण स्वयं ही सारे गुण, ज्ञान व शक्तियों के स्त्रोत थे. यानी श्रीकृष्ण और बलराम ही जगत के स्वामी हैं. सारी विद्याएं व ज्ञान उनसे ही निकला है और स्वयंसिद्ध है. फिर भी उन दोनों ने मनुष्य की तरह बने रहकर उन्हें छुपाए रखा. दरअसल, किताबी ज्ञान से कोई भी व्यक्ति भरपूर पैसा और मान-सम्मान तो बटोर सकता है, किंतु मन की शांति भी मिल जाए, यह जरूरी नहीं. शांति के लिए अहम है – सेवा. क्योंकि खुद की कोशिशों से बटोरा ज्ञान अहंकार पैदा कर सकता है व अधूरापन भी. किंतु सेवा से, वह भी गुरु सेवा से पाया ज्ञान इन दोषों से बचाने के साथ संपूर्ण, विनम्र व यशस्वी बना देता है. श्रीकृष्ण व बलराम ने भी अंवतीपुर (आज के दौर का उज्जैन) नगरी में गुरु सांदीपनी से केवल 64 दिनों में ही गुरु सेवा व कृपा से ऐसी 64 विद्याओं में दक्षता हासिल की, जो न केवल कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में बड़े-बड़े सूरमाओं को पस्त करने का जरिया बनी, बल्कि गुरु से मिले इन कलाओं और ज्ञान के अक्षय व नवीन रहने का आशीर्वाद श्रीमद्भगवद्गगीता के रूप में आज भी जगतगुरु श्रीकृष्ण के साक्षात ज्ञानस्वरूप के दर्शन कराता है और हर युग में जीने की कला भी उजागर करने वाला विलक्षण धर्मग्रंथ है. गुरु संदीपन ने श्रीकृष्ण व बलराम को सारे वेद, उनका गूढ़ रहस्य बताने वाले शास्त्र, उपनिषद, मंत्र व देवाताओं से जुड़ा ज्ञान, धनुर्वेद, मनुस्मृति सहित सारे धर्मशास्त्रों, तर्क विद्या या न्यायशास्त्र का ज्ञान दिया. संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैध व आश्रय जैसे 6 रहस्यों वाली राजनीति भी सिखाई. यही नहीं, दोनों भाइयों ने केवल गुरु के 1 बार बोलनेभर से ही 64 दिन-रात में 64 अद्भुत विद्याओं को भी सीख लिया.
गानविद्या
वाद्य-भांति-भांतिके बाजे बजाना
नृत्य
नाट्य
चित्रकारी
बेल-बूटे बनाना
चावल और पुष्पादिसे पूजा के उपहार की रचना करना
फूलों की सेज बनान
दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना
मणियों की फर्श बनाना
शय्मा-रचना
जलको बांध देना
विचित्र सििद्धयां दिखलाना
हार-माला आदि बनाना
कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना
कपड़े और गहने बनाना
फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना
कानों के पत्तों की रचना करना
सुगंध वस्तुएं-इत्र, तैल आदि बनाना
इंद्रजाल-जादूगरी
चाहे जैसा वेष धारण कर लेना
हाथ की फुतीकें काम
तरह-तरह खाने की वस्तुएं बनाना
तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना
सूई का काम
कठपुतली बनाना, नाचना
पहली
प्रतिमा आदि बनाना
कूटनीति
ग्रंथों के पढ़ाने की चातुरी
नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना
समस्यापूर्ति करना
पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना
गलीचे, दरी आदि बनाना
बढ़ई की कारीगरी
गृह आदि बनाने की कारीगरी
सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा
सोना-चांदी आदि बना लेना
मणियों के रंग को पहचानना
खानों की पहचान
वृक्षों की चिकित्सा
भेड़ा, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति
तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना
उच्चाटनकी विधि
केशों की सफाई का कौशल
मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना
म्लेच्छ-काव्यों का समझ लेना
विभिन्न देशों की भाषा का ज्ञान
शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना
नाना प्रकार के मातृकायन्त्र बनाना
रत्नों को नाना प्रकार के आकारों में काटना
सांकेतिक भाषा बनाना
मनमें कटकरचना करना
नयी-नयी बातें निकालना
छल से काम निकालना
समस्त कोशों का ज्ञान
समस्त छन्दों का ज्ञान
वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या
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आठ के अंक का है कान्हा से खास ताल्लुक



इस बार जन्माष्टमी 17 अगस्त को पड़ रही है। वो भी दो दिवसीय। लेकिन पूर्णावतार माने जाने वाले कन्हैया के जन्म को आठ के अंक से हर बार जोड़ कर देखा जाता है। उनकी बारे में बताने वाले ग्रंथ, गीता-वेदशास्त्र भी उनकी पूरी महिमा से अछूते हैं यह माना जाता भी है, क्योंकि उनके छोर का कोई विकल्प ही नहीं है। उनके जीवन में वह सबकुछ है जिसकी मानव को आवश्यकता होती है। कृष्ण गुरू हैं, तो शिष्य भी। आदर्श पति हैं तो प्रेमी भी। आदर्श मित्र हैं, तो शत्रु भी। वे आदर्श पुत्र हैं, तो पिता भी। युद्ध में कुशल हैं तो बुद्ध भी। कृष्ण के जीवन में हर वह रंग है, जो धरती पर पाए जाते हैं, तब उन्हें पूर्णावतार कहा गया है। इसीलिए जरूरी है कि उनकी आठ के अंक से जुडी विशेष बातें सब जानें।
आठवीं संतान थे वसुदेव जी के
ब्रज में रास रचाने वाले कान्हा और भक्तों के पालनहार श्री कृष्ण के जीवन में आठ अंक का अजब संयोग है।
उनका जन्म आठवें मनु के काल में हुआ था।
राक्षस राज कंस ने उनके माता-पिता वसुदेव और देवकी को कैद में रख रखा था।
ऎसा उसने एक भविष्यवाणी में खुद के अंत की सुने जाने के कारण किया था।
जिसमें उसकी बहन की आठवीं संतान द्वारा उसका वध करने का सत्य छुपा हुआ था।
अष्टमी को जन्मे थे
कंस द्वारा देवकी के सात बच्चों को मार देने के पश्चात् भगवान विष्णु ने स्वंय को साधारण इंसान की तरह आश्चर्यजनिक रूप से कृष्ण के अवतार में प्रकट किया।
वे आठवें पुत्र के रूप में अष्टमी के दिन जन्मे थे, तब से लोग कृष्ण जन्माष्टमी मनाते हैं।

3. आठ प्रमुख नाम लेते हैं उनके भक्त
श्री कृष्ण के भक्त उनकी पूजा में सर्वाधिक इन नामों को लेते हैं- नंदलाल, गोपाल, बांके बिहारी, कन्हैया, केशव, श्याम, रणछोड़दास, द्वारिकाधीश और वासुदेव।
बाद में भक्तों ने रखे जैसे मुरलीधर, माधव, गिरधारी, घनश्याम, माखनचोर, मुरारी, मनोहर, हरि, रासबिहारी आदि।

4. आठ सखियां
वैसे तो भगवान् कृष्ण की काफी भक्त थीं, लेकिन ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार चन्द्रावली, श्यामा, शैव्या, पद्या, राधा, ललिता, विशाखा और भद्रा आदि आठ सखियां हैं।

5. आठ ही पत्नियां हैं
विभिन्न शास्त्रों में वर्णन है कि कान्हा जब बडे हो गए थे तो दैत्यों के वध के दौरान 16 हजार कन्याओं को उन्होंने कैद से मुक्त कराया। वे कृष्ण की ही भक्त थीं।
मगर मान्यता है कि रूक्मिणी, जाम्बवंती, सत्यभामा, मित्रवंदा, सत्या, लक्ष्मणा, भद्रा और कालिंदी ही उनकी पत्नी थीं, यानी इस तरह आठ का अंक संयोग रखता है।

6. आठ चिह्न में विराजमान हैं
आज भक्त भगवान की पूजा के लिए जिन शुद्घ चीजों का प्रयोग करते हैं, उनमें से आठ चिह्न कृष्ण जी के हैं-सुदर्शन चक्र, मोर मुकुट, बंसी,पितांभर वस्त्र, पांचजन्य शंख, गाय, कमल का फूल और माखन मिश्री।
आठ नगर, जो पहचाने जाते हैं श्रीकृष्ण की स्थली
ब्रजभूमि कई शहरों को मिलाकर बना है, जिनका मुख्यालय मथुरा है। गोकुल, नंदगाव, वृंदावन, गोवर्धन, बरसाना, मधुवन कस्बे श्रीकृष्ण की लीलाओं के लिए जाने जाते हैं।
कंस के वध के बाद वे जहां दूसरी जगह बसे वह आज गुजरात राज्य में हैं।
द्वारिका नामक यह नगर विश्वकर्मा महाराज द्वारा समुद्र के सहारे स्थापित कराया गया। यह कुल आठ हो गए।
ये महादैत्य थे श्रीकृष्ण के शत्रु

कंस, जरासंध, शिशुपाल, कालयवन, पौंड्रक। कंस तो मामा था। कंस का श्वसुर जरासंध था। शिशुपाल कृष्ण की बुआ का लड़का था। कालयवन यवन जाति का मलेच्छ जा था जो जरासंध का मित्र था। पौंड्रक काशी नरेश था जो खुद को विष्णु का अवतार मानता था। इनके अलावा दो-एक को अर्जुन के साथ एक जंगल पर वार के दौरान मुक्ति दी गई थी।
कृष्ण और उनका जीवन



कृष्ण पूर्ण योगी और यौद्धा थे। यमुना के तट पर और यमुना के ही जंगलों में गाय और गोपियों के संग-साथ रहकर बाल्यकाल में कृष्ण ने पूतना वध, शकटासुर वध, यमलार्जुन मोक्ष, कलिय दमन, धेनुक वध, प्रलंब वध, अरिष्ट वध, कालयवन वध आदि का संहार किया तो किशोरावस्था में बड़े भाई बलदेव के साथ कंस का वध किया। जवान होते-होते उनकी दूर-दूर तक ख्याति फैल गई थी। फिर भी कृष्ण का जीवन सफलताओं और असफलताओं की एक लंबी और रोचक दास्तान है।

कृष्ण जन्म : पुराणों अनुसार आठवें अवतार के रूप में विष्णु ने यह अवतार लिया। मनु वैवस्वत के मन्वंतर के अट्ठाईसवें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में जन्म लिया था। उनका जन्म भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की रात्रि के सात मुहूर्त निकल गए और आठवाँ उपस्थित हुआ तभी आधी रात के समय सबसे शुभ लग्न उपस्थित हुआ। उस लग्न पर केवल शुभ ग्रहों की दृष्टि थी। रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में जन्म हुआ। ज्योतिषियों अनुसार रात 12 बजे उस वक्त शून्य काल था।
वैसे कृष्ण जन्म को लेकर विद्वानों में मतभेद है… अलग-अलग शोध में कृष्ण के जन्म की तारीख अलग-अलग बताई गई है…



पहला शोध- 3112 ईसा पूर्व (यानी आज से 5125 वर्ष पूर्व) को हुआ…

ब्रिटेन में रहने वाले शोधकर्ता ने खगोलीय घटनाओं, पुरातात्विक तथ्यों आदि के आधार पर कृष्ण जन्म और महाभारत युद्ध के समय का वर्णन किया है।ब्रिटेन में कार्यरत न्यूक्लियर मेडिसिन के फिजिशियन डॉ. मनीष पंडित ने महाभारत में वर्णित 150 खगोलिय घटनाओं के संदर्भ में कहा कि महाभारत का युद्ध22 नवंबर 3067 ईसा पूर्व को हुआ था। इन गणनाओं के अनुसार कृष्ण का जन्म र्इसा पूर्व 3112 में हुआ था, यानि महाभारत युद्ध के समय कृष्ण की उम्र 54-55 साल की थी।



उन्होंने अपनी खोज के लिए टेनेसी के मेम्फिन यूनिवर्सिटी में फिजिक्स के प्रोफेसर डॉ. नरहरि अचर द्वारा 2004-05 में किए गए शोध का हवाला भी दिया। इसके संदर्भ में उन्होंने पुरातात्विक तथ्यों को भी शामिल किया। जैसे कि लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी के सबूत, पानी में डूबी द्वारका और वहाँ मिले कृष्ण-बलराम के की छवियों वाले पुरातात्विक सिक्के और मोहरे, ग्रीक राजा हेलिडोरस द्वारा कृष्ण को सम्मान देने के पुरातात्विक सबूत आदि।

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